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जैन ऋषियों का अपमान न करें

pushyamitra
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ये बात सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है, ये समस्या उन सभी लोगों द्वारा दी हुई है जो जैन मुनियों का मज़ाक बनाते हैं l उन्हें ये समझना चाहिए कि जैन ऋषियों और नागाओं का त्याग उस उच्चता का होता है जहां तक बिरले भी नहीं पहुंच पाते, वे न सिर्फ मोह माया को त्यागते हैं, बल्कि ” लोग क्या सोचेंगे ” इस सोच को भी त्याग चुके होते हैं l सचमुच ये त्याग बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं प्राप्त कर सकते! मैंने पहले भी कहा था कि “जो मनुष्य ये दावा करता है कि वह दुनिया से बेफिक्र है या उसे समाज से फर्क नहीं पड़ता वह तो झूठा है; क्यों कि जिस दिन मनुष्य को समाज की परवाह नहीं रही, वह वस्त्र त्याग कर सड़क पर घूमने में संकोच नहीं करेगा ” l मगर ये मुक्ति हर साधक के बस की नहीं ! जैन धर्म हिंदुत्व का शुद्धतम स्वरूप है l
जिन्हें जैन ऋषियों में अश्लीलता या नग्नता दिखती है, वे स्वयम वैचारिक नग्न हैं l अपने आसपास देखिये पेड़-पौधे, जन्तु – जीव सभी वस्त्रहीन हैं, क्या उन्हें देख कर भी अश्लीलता अनुभव होती है ? नहीं ! क्यों कि ये सभी जीवधारियों का प्राकृतिक स्वरूप है; ये सिर्फ हमारी कामी सोच है जो एक निर्वस्त्र शिशु और वयस्क में अश्लीलता का भेद ढूंढ निकालते हैं l अश्लीलता मनुष्य की सोच द्वारा रची जाती है, जहां एक तरफ ये लोग पाश्चात्य परिधानों को वैचारिक स्वतन्त्रता की संज्ञा देते हैं वहीं अपने देश के सन्तों में नग्नता देखते हैं l ये उन लोगों की वैचारिक नग्नता है ! मैं समाज से निर्वस्त्र होने का आह्वान नहीं कर रहा हूँ, बस किसी पन्थ को समझे बिना हल्की टिप्पणियां नहीं करनी चाहिए l
विशाल डडलानी की टिप्पणी से जैन ऋषियों को सचमुच कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्यों कि सन्तों पर जिनका प्रभाव पड़ता है वे विषय कुछ अन्य ही होते हैं l मैंने एक बार जूनापीठेश्वर स्वामी अवधेशानंदजी का साक्षात्कार पढ़ा, जिसमें उनसे राजनीति पर एक सवाल पूछा गया था l जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि “आपका प्रसंग मेरी चिंता का विषय नहीं है , मेरी चिंता तो ये है कि तितलियाँ क्यों कम होती जा रही हैं , गौरैया क्यों खो रही हैं, पुष्प क्यों कम महक रहे हैं” l वास्तव में संत प्रकृति और समाज में सन्तुलन के विषय में सोचता है, “मान और अपमान” के विषय में नहीं l इसलिए ये समाज का कर्तव्य है कि वह सन्तों के मान और अपमान के विषय में सोचे !

पुष्यमित्र उपाध्याय

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